Saturday 12 October 2013

देश की वर्तमान दशा और बुद्धिजीवी

उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के इस दौर ने मनुष्य को बाजार की वस्तु बना दिया है। उसका इसी आधार पर आकलन होने लगा है। विदेशी पूंजी अपने साथ अपनी सभ्यता लेकर आती है। इसका हमला प्रत्यक्ष रूप से दिखार्इ नहीं देता। लेकिन दिल-दिमाग के भीतर तक पैठ बना लेता है। राजनीतिक गुलामी प्रत्यक्ष होती है। अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया था। अपने शासन को स्थायित्व देने के लिये उन्होंने राजनीतिक व प्रशासनिक मोर्चे को अपर्याप्त माना था। इसके समक्ष आने वाली चुनौतियों को उन्होंने समय से पहले समझ लिया था। वह जानते थे कि ब्रिटिस शासकों के खिलाफ भारत के लोग आन्दोलन कर सकते हैं। शासक जब सामने होते हैं, उनसे लड़ा जा सकता है। उनकी सत्ता को चुनौती दी जा सकती है। बि्रटिश शासकों के सामने ऐसी परिसिथतियां सामने आयी थीं। इसलिए उन्होंने अपने को प्रशासनिक-राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित नहीं रखा था। सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र को भी योजनाबद्ध ढंग से प्रभावित करने की रणनीति पर अमल किया। वह भारतीयों के ऐसे वर्ग का निर्माण चाहते थे, जो मानसिक रूप से पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति के वशीभूत हो। उसका रंग भले ही काला हो, लेकिन जीवन-शैली अंग्रेजों जैसी हो। अंग्रेजों की दिखने की उसमें इच्छा हो। अंग्रेजी भाषा पर उसे गर्व हो। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में उसका लगाव न हो। मैकाले की सोच चल निकली। अंग्रेज भारतीयों का ऐसा वर्ग बनाने में सफल रहे। लेकिन उस समय भी भारतीय चिन्तन से प्रभावित बुद्धिजीवियों की समानान्तर धारा प्रवाहित हो रही थी। वह जानते थे कि भारतीय समाज में कतिपय कमियां हो सकती हैं। जातीय भेदभाव हो सकते हैं। 
लेकिन इसका समाधान अंग्रेज नहीं कर सकते। वह अपना स्वार्थ पूरा करने के लिये भारत में थे। भारत का हित करना उनका उद्देश्य नहीं था। उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसे ही बुद्धिजीवियों ने स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार का नारा बुलन्द किया। महर्षि अरविन्द जैसे लोगों ने बेडि़यों में जकड़ी भारत माता के रूप से लोगों को परिचित कराया। यहां के सभी लोग भारत माता की सन्तान हैं। इस आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। यह चिन्तन भी कोर्इ नयी नहीं था। यह प्राचीन भारतीय विरासत थी। समस्याएं बाद में उत्पन्न हुर्इं। लेकिन अंग्रजों के लिये यह अच्छी बात थी। फूट डालो राज करो की नीति पर उनका चलना आसान था। बि्रटिश सत्ता से सुधार की उम्मीद करने वाले भ्रम में थे। बुद्धिजीवियों ने मार्ग दिखाया। स्वतंत्रता का कोर्इ विकल्प नहीं हो सकता। स्वशासन के बल पर ही हम अपनी कमजोरियों को दूर कर सकते हैं। इसके पहले भी भारत में बुद्धिजीवियों ने समय-समय पर 
सुधारवादी आन्दोलन चलाए। इसी का परिणाम था कि भारत अपवाद को छोड़कर कभी सांस्कृतिक रूप से परतंत्र नहीं हुआ।
कुछ बात है कि हस्ती
मिटती नहीं अपनी।
बात यही थी। गुलामी के लम्बे दौर में भी सांस्कृतिक चेतना के दीपकों को रौशन रखा गया।
हवा भी चलती रही
और दीप भी चलते रहे।
यह बुद्धिजीवियों की भूमिका थी, जिसने सदियों की गुलामी के बाद भी भारतीय सभ्यता-संस्कृति को दम तोड़ने नहीं दिया। जबकि विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताएं समय के थपेड़ों में विलुप्त हो गयीं।
लेकिन सम्राज्यवादी शकितयां आज भी सक्रिय हैं। प्रभावी हैं। केवल इनका स्वरूप बदला है। अब सांस्कृति आक्रमण हो रहा है। इसमें आक्रमणकारी प्रत्यक्ष नहीं है। यह हमारी जीवनशैली बदल रहा है। जो काम अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासन में बहुत धीमी गति से हो रहा था। वह अब बहुत तीव्र गति में चल रहा है। उपभोक्तावाद हमारे मन-मसितष्क पर हावी हो रहा है। बाजार दशा-दिशा तय कर रहा है। त्यौहारों का स्वरूप बदल रहा है। उसका आध्यातिमक महत्व कम हो रहा हैं बाजार उन्हें अपने मुनाफे के लिये बदल रहा है। अक्षय-तृतीया में किसका और किस प्रकार पूजन होना चाहिए, इसका मतलब नहीं रहा। बाजार बता रहे हैं- इस दिन सोना खरीदना जरूरी है। गरीब क्या करे। ठगा सा देख रहा है। दीपावली अपने नाम की सार्थकता खो रहा है। बाजार तरह-तरह की झालरों से आकर्षित कर रहा है। चीन भी इसमें पीछे नहीं। पटाखों का जखीरा सामाजिक शान का प्रतीक बन गया। गरीब अपनी झोपड़ी के सामने बैठकर आकाश की तरफ देखता है। कहीं कोर्इ चिंगारी उसके आशियाने को खाक न कर दे। इस भेदभाव पर कौन ध्यान देगा। गणेश-लक्ष्मी के पूजन में भी बाजार का हस्तक्षेप है। लगता है जीवन का उíेश्य केवल उपभोक्तावाद है। व्यकित की पहचान का यही आधार है। डिजाइनर कपड़े-सूट हमारी पहचान बनाते हैं। चार पहिया वाहन होना पर्याप्त नहीं। जितनी महंगी कार से चलो, उतने ही महत्वपूर्ण हो जाओगे।
जाहिर है कि उदारीकरण के इस दौर ने सामाजिक भेदभाव को अधिक गहरा किया है। अब यह बुद्धिजीवियों का दायित्व है कि वह सुधार का बीड़ा उठायें। नव सम्राज्यवाद का हमला घर-परिवार तक है। माता-पिता के लिये वर्ष में केवल एक दिन। वह भी केक, जाम और डांस के नाम रहता है। बुद्धिजीवी ही बता सकता है मातृ-पितृ ऋण का महत्व। इससे उऋण होने के लिये एक जीवन कम है। बुद्धिजीवियों को सक्रिय राजनीति में अपनी भूमिका तलाशनी होगी। उसका स्वरूप कुछ भी हो सकता है। अन्यथा राजनीति में अपराधी, माफिया, धन-बाहुबलियां का इसी प्रकार वर्चस्व बढ़ता रहेगा। नि:संदेह आज बुद्धिजीवियों की भूमिका पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है।

रसूखदारों को राहत देने वाला अध्यादेश

अध्यादेश की शक्ति प्रजातंत्र की मूल भावना से मेल नहीं रखती। संविधान सभा में  इस पर बहस हुई थी। कई सदस्यों ने इसे कार्यपालिका की निरंकुशता का प्रतीक मानकर विरोध किया था। लेकिन संविधान सभा ने व्यापक विचार विमर्श के बाद अध्यादेश का प्रावधान किया। जिस समय संसद का अधिवेशन न चल रहा हो, शीघ्रता से कोई विधेयक पारित कराना सम्भव न हो तथा राष्ट्र और जनहित के लिये किसी कानून की तत्काल आवश्यकता हो, तब कार्यपालिका अध्यादेश जारी कर सकती है। अध्यादेश कानून की भांति होता है। अध्यादेश जारी करने की शक्ति कार्यपालिका को दी गयी।
लेकिन संविधान निर्माताओं ने अध्यादेश प्रावधान के ऐसे दुरुपयोग की कल्पना नहीं की होगी। केन्द्र सरकार ने सजा प्राप्त राजनेताओं को राहत देने के लिये अध्यादेश जारी किया। सरकार के इस कार्य में  संवैधानिक पवित्रता को बनाये रखने की भावना नही  थी। इसमें राष्ट्र या जनहित का कोई मसला समाहित नहीं था। फौरी तौर पर दो मामले सामने थे। बताया जाता है कि सरकार तत्काल रूप में कांग्रेस के रशीद मसूद और राजद प्रमुख लालू यादव को राहत देना चाहती थी।
यह आम धारणा बन गयी है कि देश में रसूखदार लोग कानून से बच निकलते हैं। एक तो दशकों तक उन पर लगे आरोपो पर निर्णय नहीं होता। इसमें केवल न्यायिक प्रक्रिया की कमी नहीं है। जांच एजेंसियां आवश्यक प्रमाण जुटाने में लापरवाही दिखाती हैं। उन पर सरकार का दबाव होता है। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है। वस्तुतः अध्यादेश के माध्यम से सरकार ने अपनी इसी नीति और नीयत को आगे बढ़ाया है। रशीद मसूद और लालू यादव पर लगे आरोप करीब दो दशक पुराने है। अनियमितता व बड़े घोटाले हुए। इस पूरी अवधि में ये लोग सत्ता या सदन के गलियारे मंे रहे। अब सदन में  इस प्रकार के लोगों की बड़ी संख्या में है। ए. राजा, कलमाड़ी, मधुकोड़ा आदि ऐसे मामलों के बड़े नाम हैं। न्यायिक निर्देया के बाद ही इन पर शिकंजा कसा था। अब सब पहले की तरह होता जा रहा है। ये सभी राजनीतिकी नई पारी के लिये तैयार हैं। न्यायपालिका ने दो वर्ष के सजायाफ्ताओं पर एक निर्णय दिया। सरकार उनके बचाव में आ गयी। वह इस अध्यादेश से क्या संदेश देना चाहती है। यही कि रसूखदार लोगों को कानून शिकंजे से बचाने के प्रत्येक संभव प्रयास किये जायेंगे। बेशक राजनीतिक मुकदमों को अलग रखना चाहिए। कई बार प्रदर्शन, आन्दोलन, धारा-144 के उल्लंघन आदि के मुकदमें लगते हैं। लेकिन घोटालों तथा अन्य गम्भीर अपराधों को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। 
ऐसे में यह सरकार का दायित्व था कि अपराधी तत्वों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का मार्ग प्रशस्त करे। सरकार ने अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया। इसीलिए उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। उसने संसद और विधायिका से ऐसे सदस्यों की सदस्यता समाप्त करने का आदेश पारित किया था, जिसे दो वर्ष या अधिक की सजा मिली हो। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने इस न्यायिक निर्णय को निष्प्रभावी बनाने के लिये अध्यादेश का सहारा लिया। सरकार को अध्यादेश जारी करने का अधिकार है। लेकिन इस मामले में प्रश्न सरकार की नीयत और नैतिकता को लेकर उठा है। 
आपराधिक या भ्रष्टाचार के सजायाफ्ताओं को बचाने में संप्रग सरकार को इतनी जल्दबाजी क्या थी। उसने पहले सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायरा की थी। जो स्वीकार नहीं की गयी। संसद के मानसून सत्र में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को निष्प्रभावी बनाने के लिये संशोधन प्रस्ताव रखा था। इसमें जेल में बन्द व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर लगी रोक हटाने पर सभी दलों में आम सहमति थी। अतः यह प्रस्ताव पारित हो गया। लेकिन दो वर्ष के सजायाफ्ता की सदस्यता रद्द होने वाले निर्णय को निष्प्रभवी बनाने के लिये संशोधन प्रस्ताव रखा था। इसमें जेल में बन्द व्यक्ति के लिये संशोधान प्रस्ताव रखा था। इसमें जेल में बन्द व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर लगी रोक हटाने पर सभी दलों में  आम सहमति थी। अतः यह प्रस्ताव पारित हो गया। लेकिन दो वर्ष के सजायाफ्ता की सदस्यता रद्द होने वाले निर्णय को निष्प्रभावी बनाने पर आम सहमति नहीं बन सकी थी। सरकार का संशोधन प्रस्ताव राज्यसभा से पारित नहीं हो सका। सदन में सहमति न बनने के कारण इसे स्थायी समिति के पास भेजा गया। ऐसे में सरकार को स्थायी समिति की रिपोर्ट तथा संसदीय निर्णय का इंतजार करना चाहिए था। सरकार को उन बिन्दुओं पर विचार करना चाहिए था, जिन पर आम सहमति नहीं बन रही थी। सरकार की दलील थी कि निचली अदालत किसी सांसद या विधायक को दो वर्ष जेल की सजा दे, तो वह अपनी सदस्यता से वंचित हो जायेगा। लेकिन ऊंची अदालत उसे निर्दोष मानकर सजा से मुक्त कर दे, तब क्या होगा। तब उसकी सदन की समाप्त हुई सदस्यता बहाल नहीं होगी। संविधान में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। यह भी सम्भव है ऊंची अदालत से उसे निर्दोश करार देने से पहले उपचुनाव के माध्यम से रिक्त सीट भर ली जाए।
जाहिर है कि इस मसले पर दो गम्भीर बातों पर विचार होना चाहिए था। एक यह कि किस निर्दोष को परेशान न होना पड़े। दूसरा यह कि उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति कानून से बचते न रहे। पहले वाली बात प्रायः दुर्लभ होती है। कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं कि आरोप लगने और जांच शुरू होने से पहले ही कई राजनेताओं ने अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया था। उन्होंने निर्दोष साबित होने तक कोई पद ग्रहण न करन का संकल्प लिया था। जनसेवा या राजनीति ऐसे ही उच्च आदर्शों की मांग करती है। राजनेताओं को ऐसे त्याग के लिये तैयार रहना चाहिए। वह नौकरी पर निर्भर रहने वाले सरकारी मुलाजिम नहीं होता। आपराधिक मामले में किसी भी अदालत से दो वर्ष की सजा मिलना सामान्य बात नहीं होती। संसद और विधानसभा ऐसे लोगों से मुक्त होकर अपनी गरिमा बढ़ा सकती है। वह भविष्य में निर्दोष साबित हुए तो उनकी छवि में अधिक निखार दिखाई देगा। यदि ऊंची अदालत ने सजा को सही माना, तो समाज में संदेश जायेगा। यह संदेश विधि के शासन को प्रतिष्ठित करेगा। कानून से ऊपर कोई नहीं। रसूखदारों को मिलने वाली सजा का प्रशासन के निचले स्तर तक अच्छा संदेश जायेगा। उन्हें बचाने या संरक्षण देने का प्रयास अनैतिकता को बढ़ावा देगा।

Monday 16 September 2013

विश्वकर्मा पूजा पर विशेष!

हिंदू धर्म में मानव विकास को धार्मिक व्यवस्था के रूप में जीवन से जोड़ने के लिए विभिन्न अवतारों का विधान
मिलता है। इन्हीं अवतारों में से एक भगवान विश्वकर्मा को दुनिया का इंजीनियर माना गया है, अर्थात समूचे विश्व का ढांचा उन्होंने ही तैयार किया है। वे ही प्रथम आविष्कारक थे। हिंदू धर्मग्रंथों में यांत्रिक, वास्तुकला, धातुकर्म, प्रक्षेपास्त्र विद्या, वैमानिकी विद्या आदि का जो प्रसंग मिलता है, इन सबके अधिष्ठाता विश्वकर्मा माने जाते हैं। इस बार विश्वकर्मा पूजा 17 सितम्बर दिन मंगलवार को पड़ रही है|

विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएं प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों व शक्ति संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया। इन्हीं साधनों द्वारा मानव समाज भौतिक चरमोत्कर्ष को प्राप्त करता रहा है। प्राचीन शास्त्रों में वैमानकीय विद्या, नवविद्या, यंत्र निर्माण विद्या आदि का उपदेश भगवान विश्वकर्मा ने दिया। माना जाता है कि प्राचीन समय में स्वर्ग लोक, लंका, द्वारिका और हस्तिनापुर जैसे नगरों के निर्माणकर्ता भी विश्वकर्मा ही थे।

माना जाता है कि विश्वकर्मा ने ही इंद्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पांडवपुरी, सुदामापुरी और शिवमंडलपुरी आदि का निर्माण किया। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा निर्मित हैं। कर्ण का कुंडल, विष्णु का सुदर्शन चक्र, शंकर का त्रिशूल और यमराज का कालदंड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है।

एक कथा के अनुसार यह मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम नारायण अर्थात् विष्णु भगवान क्षीर सागर में शेषशय्या पर आविर्भूत हुए। उनके नाभि-कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र 'धर्म' तथा धर्म के पुत्र वास्तुदेव हुए।

कहा जाता है कि धर्म की वस्तु नामक स्त्री से उत्पन्न वास्तु सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए थे। अपने पिता की भांति ही विश्वकर्मा भी आगे चलकर वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने। भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं। उन्हें कहीं पर दो बाहु, कहीं चार, कहीं पर दस बाहुओं तथा एक मुख और कहीं पर चार मुख व पंचमुखों के साथ भी दिखाया गया है। उनके पांच पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ हैं।

यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तुशिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार भी वैदिक काल में किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है। हिंदू धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरूपों और अवतारों का वर्णन मिलता है :

विराट विश्वकर्मा : सृष्टि के रचयिता

धर्मवंशी विश्वकर्मा : शिल्प विज्ञान विधाता और प्रभात पुत्र

अंगिरावंशी विश्वकर्मा : आदि विज्ञान विधाता और वसु पुत्र

सुधन्वा विश्वकर्मा : विज्ञान के जन्मदाता (अथवी ऋषि के पौत्र)

भृंगुवंशी विश्वकर्मा : उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र)

विश्वकर्मा के विषय में कई भ्रांतियां हैं। बहुत से विद्वान विश्वकर्मा नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है। कुछ विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं, तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं।

ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त के नाम से 11 ऋचाएं लिखी हुई हैं। यही सूक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सूक्त मंत्र 16 से 31 तक 16 मंत्रों में आया है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा शब्द इंद्र व सूर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं। स्कंद पुराण प्रभात खंड के इस श्लोक की भांति किंचित पाठभेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता है :

बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।

प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।

विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापति: ।।16।।

महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी, वह अष्टम वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे संपूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। भारत में शिल्प संकायों, कारखानों और उद्योगों में प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को भगवान विश्वकर्मा पूजनोत्सव का आयोजन किया जाता है।

Saturday 14 September 2013

सफलता के शिखर!

बहुत समय पहले की बात है !! एक सरोवर में बहुत सारे मेंढक रहते थे !! सरोवर के बीचों -बीच एक बहुत पुराना धातु का खम्भा भी लगा हुआ था जिसे उस सरोवर को बनवाने वाले राजा ने लगवाया था !! खम्भा काफी ऊँचा था और उसकी सतह भी बिलकुल चिकनी थी !!
एक दिन मेंढकों के दिमाग में आया कि क्यों ना एक रेस करवाई जाए !! रेस में भाग लेने वाली प्रतियोगीयों को खम्भे पर चढ़ना होगा और जो सबसे पहले एक ऊपर पहुच जाएगा वही विजेता माना जाएगा !! रेस का दिन आ पंहुचा !! चारो तरफ बहुत भीड़ थी !! आस -पास के इलाकों से भी कई मेंढक इस रेस में हिस्सा लेने पहुचे !! माहौल में सरगर्मी थी !! हर तरफ शोर ही शोर था !!
रेस शुरू हुई, लेकिन खम्भे को देखकर भीड़ में एकत्र हुए किसी भी मेंढक को ये यकीन नहीं हुआ कि कोई भी मेंढक ऊपर तक पहुंच पायेगा !! हर तरफ यही सुनाई देता - "अरे ये बहुत कठिन है !! वो कभी भी ये रेस पूरी नहीं कर पायंगे !! सफलता का तो कोई सवाल ही नहीं !! इतने चिकने खम्भे पर चढ़ा ही नहीं जा सकता !!" और यही हो भी रहा था, जो भी मेंढक कोशिश करता, वो थोड़ा ऊपर जाकर नीचे गिर जाता !!
कई मेंढक दो -तीन बार गिरने के बावजूद अपने प्रयास में लगे हुए थे !! पर भीड़ तो अभी भी चिल्लाये जा रही थी - "ये नहीं हो सकता , असंभव !!" और वो उत्साहित मेंढक भी ये सुन-सुनकर हताश हो गए और अपना प्रयास छोड़ दिया !!
लेकिन उन्ही मेंढकों के बीच एक छोटा सा मेंढक था, जो बार -बार गिरने पर भी उसी जोश के साथ ऊपर चढ़ने में लगा हुआ था !! वो लगातार ऊपर की ओर बढ़ता रहा और अंततः वह खम्भे के ऊपर पहुच गया और इस रेस का विजेता बना !! उसकी जीत पर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ !! सभी मेंढक उसे घेर कर खड़े हो गए और पूछने लगे - "तुमने ये असंभव काम कैसे कर दिखाया, भला तुम्हे
अपना लक्ष्य प्राप्त करने की शक्ति कहाँ से मिली, ज़रा हमें भी तो बताओ कि तुमने ये विजय कैसे प्राप्त की ??" तभी पीछे से एक आवाज़ आई - "अरे उससे क्या पूछते हो , वो तो बहरा है !!"
अक्सर हमारे अन्दर अपना लक्ष्य प्राप्त करने की काबीलियत होती है, पर हम अपने चारों तरफ मौजूद नकारात्मकता की वजह से खुद को कम आंक बैठते हैं और हमने जो बड़े-बड़े सपने देखे होते हैं उन्हें पूरा किये बिना ही अपनी ज़िन्दगी गुजार देते हैं !! आवश्यकता इस बात की है हम हमें कमजोर बनाने वाली हर एक आवाज के प्रति बहरे और ऐसे हर एक दृश्य के प्रति अंधे हो जाएं !! और तब हमें सफलता के शिखर पर पहुँचने से कोई नहीं रोकपायेगा !!

हिंदी दिवस विशेष !

हिंदी भारोपीय (भारतीय-यूरोपीय) परिवार की एक ऐसी भाषा है जो आम भारतीयों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। संख्या बल की दृष्टि से यह दुनिया में सर्वाधिक लोगों के बीच समझी जाने वाली भाषा है। भारोपीय परिवार की भाषा होने के कारण यह भारतीय सीमा के बाहर भी समझी जाती है। संस्कृत शब्दों की बहुलता के कारण यह देश के भीतर संपर्क का बेहतर माध्यम मानी जाती है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही आजाद देश की भाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किए जाने की वकालत की जाने लगी थी। उस समय करीब-करीब देश के हर नेता ने हिंदी के महत्व को स्वीकार किया था, किंतु दुर्भाग्यवश हिंदी को वह सम्मानजनक आसन दिला पाने में वे विफल रहे।
हिंदी दिवस: कारण और महत्व
स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी (खड़ी बोली) ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण
निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
इस दिन विभिन्न शासकीय, अशासकीय कार्यालयों, शिक्षा संस्थाओं आदि में विविध गोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रतियोगिताओं तथा अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कहीं-कहीं हिंदी पखवाड़ा तथा राजभाषा सप्ताह भी मनाए जाते हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए कहा था कि किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता। कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।
यह बहस 12 सितंबर, 1949 को शाम चार बजे से शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई थी। 14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद भाषा संबंधी संविधान के तत्कालीन भाग 14 (क) और वर्तमान भाग 17 में हिंदी का उल्लेख है।
संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई। इसमें डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगार की महती भूमिका रही। बहस के बाद यह सहमति बनी कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों और अंग्रेजी में लिखे जाने वाले अंकों को लेकर बहस हुई और अंतत: आयंगार-मुंशी फार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार कर लिया गया।
स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद जो निर्णय लिया गया, वह भारतीय संविधान के अध्याय 17 के अनुच्छेद 343 (1) में इस प्रकार वर्णित है: संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय ही होगा।
राजभाषा के प्रश्न से अलग हिंदी की अपनी एक विशाल परंपरा है। साहित्य और संचार के क्षेत्र में भी हिंदी का दबदबा देखने को मिलता है। तकनीक की क्रांति ने हिंदी को बल दिया है तो इसे सीमा के बाहर भी फैलने का अवसर प्रदान किया है।

Wednesday 28 August 2013

'कृष्ण' एक मानवीय शक्ति

हाल ही में एक भारतवंशी ब्रितानी शोधकर्ता ने खगोलीय घटनाओं और पुरातात्विक व भाषाई साक्ष्यों के आधार पर दावा किया है कि भगवान कृष्ण हिंदू मिथक और पौराणिक कथाओं के काल्पनिक पात्र न होते हुए एक वास्तविक पात्र थे। सच्चाई भी यही है। ब्रिटेन में न्यूक्लियर मेडिसिन के फिजिशियन डॉ़ मनीष पंडित ने अपने अनुसंधान में बताया है कि टेनेसी के मेम्फिस विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर डॉ़ नरहरि अचर ने खगोल विज्ञान की मदद से महाभारत युद्घ के काल का पता लगाया है। कृष्ण का जन्म 3112 बीसी में हुआ। डॉ़ पंडित द्वारा बनाई गई दस्तावेजी फिल्म ‘कृष्ण इतिहास और मिथक’ में बताया गया है कि पांडवों और कौरवों के बीच महाभारत की लड़ाई ईसा पूर्व 3067 में हुई थी। इन गणनाओं के अनुसार कृष्ण का जन्म ईसा पूर्व 3112 में हुआ था, यानी महाभारत युद्घ के समय कृष्ण की उम्र 54-55 साल की थी। महाभारत में 140 से अधिक खगोलीय घटनाओं का विवरण है। इससे स्पष्ट होता है कि कृष्ण कोई अलौकिक या दैवीय शक्ति न होकर एक मानवीय शक्ति थे।

कृष्ण बाल जीवन से ही जीवनपर्यंत सामाजिक न्याय की स्थापना और असमानता को दूर करने की लड़ाई दैव व राजसत्ता से लड़ते रहे। वे गरीब की चिंता करते हुए खेतीहर संस्कृति और दुग्ध क्रांति के माध्यम से ठेठ देशज अर्थव्यवस्था की स्थापना और विस्तार में लगे रहे। सामारिक दृष्टि से उनका र्शेष्ठ योगदान भारतीय अखंडता के लिए उल्लेखनीय रहा। कृष्ण जड़ हो चुकी उस राज और देव सत्ता को भी चुनौती देते हैं, जो जन विरोधी नीतियां अपनाकर लूट तंत्र और अनाचार का हिस्सा बन गए थे? भारतीय लोक के कृष्ण ऐसे परमार्थी थे जो चरित्र भारतीय अवतारों के किसी अन्य पात्र में नहीं मिलता। कृष्ण की विकास गाथा अनवरत साधारण मनुष्य बने रहने में निहित रही। 16 कलाओं में निपुण इस महानायक के बहुआयामी चरित्र में वे सब चालाकियां बालपन से ही थीं, जो किसी चरित्र को वाक्पटु और उद्दंडता के साथ निर्भीक नायक बनाती हैं, लेकिन बाल कृष्ण जब माखन चुराते हैं तो अकेले नहीं खाते, अपने सब सखाओं को खिलाते हैं और जब यशोदा मैया चोरी पकड़े जाने पर दंड देती हैं तो उस दंड को अकेले कृष्ण झेलते हैं। चरित्र का यह प्रस्थान बिंदु किसी उदात्त नायक का ही हो सकता है।


कृष्ण का पूरा जीवन समृद्घि के उन उपायों के विरुद्घ था, जिनका आधार लूट और शोषण रहा। शोषण से मुक्ति, समता व सामाजिक समरसता से मानव को सुखी और संपन्न बनाने के गुर गढ़ने में कृष्ण का चिंतन लगा रहा। इसीलिए कृष्ण जब चोरी करते हैं, स्नान करती स्त्रियों के वस्त्र चुराते हैं, खेल-खेल में यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए कालिया नाग का मान र्मदन करते हैं, उनकी वे सब हरकतें अथवा संघर्ष उत्सवप्रिय हो जाते हैं। नकारात्मकता को भी उत्सवधर्मिता में बदल देने का गुर कृष्ण चरित्र के अलावा दुनिया के किसी इतिहास नायक के चरित्र में विद्यमान नहीं हैं?


भारतीय मिथकों में कोई भी कृष्ण के अलावा ईश्वरीय शक्ति ऐसी नहीं है जो राजसत्ता से ही नहीं उस पारलौकिक सत्ता के प्रतिनिधि इन्द्र से विरोध ले सकती हो जिसका जीवनदायी जल पर नियंत्रण था? यदि हम इन्द्र के चरित्र को देवतुल्य अथवा मिथक पात्र से परे मनुष्य रूप में देखें तो वे जल प्रबंधन के विशेषज्ञ थे, लेकिन कृष्ण ने रूढ़, भ्रष्ट व अनियमित हो चुकी उस देवसत्ता से विरोध लिया, जिस सत्ता ने इन्द्र को जल प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी हुई थी और इन्द्र जल निकासी में पक्षपात बरतने लगे थे। किसान को तो समय पर जल चाहिए अन्यथा फसल चौपट हो जाने का संकट उसका चैन हराम कर देता है। कृष्ण के नेतृत्व में कृषक और गौ पालकों के हित में यह शायद दुनिया का पहला आंदोलन था, जिसके आगे प्रशासकीय प्रबंधन नतमस्तक हुआ और जल वर्षा की शुरुआत किसान हितों को दृष्टिगत रखते हुए शुरू हुई।


आज नारी नर के समान स्वतंत्रता और अधिकारों की मांग कर रही है, लेकिन कृष्ण ने तो औरत को पुरुष के बराबरी का दर्जा द्वापर में ही दे दिया था। राधा विवाहित थी, लेकिन कृष्ण की मुखर दीवानी थी। ब्रज भूमि में स्त्री स्वतंत्रता का परचम कृष्ण ने फहराया। जब स्त्री चीर हरण (द्रोपदी प्रसंग) के अवसर पर आए तो कृष्ण ने चुनरी को अनंत लंबाई दी। स्त्री संरक्षण का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण दुनिया के किसी भी साहित्य में नहीं है? इसीलिए वृंदावन में यमुना किनारे आज भी पेड़ से चुनरी बांधने की परंपरा है। जिससे आबरू संकट की घड़ी में कृष्ण रक्षा करें।



प्रमोद भार्गव

Saturday 3 August 2013

भारत की आंखों से दुनिया देखेगी ब्रह्मांड

बेंगलुरु।।सौ.  इकनॉमिक टाइम्स |जब टी. हरि ने 1.2 अरब डॉलर के थर्टी मीटर टेलीस्कोप (टीएमटी) के बारे में सुना, तो उन्हें इसमें बिजनेस की भरपूर संभावनाएं दिखीं। मुरली पांडिचेरी की कंपनी जनरल ऑप्टिक्स एशिया लिमिटेड (गोल) को हेड करते हैं। यह स्पेस और डिफेंस सेक्टर के लिए खास कंपोनेंट बनाती है। हालांकि, इसके लिए कॉन्ट्रैक्ट प्रॉजेक्ट में पार्टनर देश की कंपनियों को दिया जा रहा था। ऐसे में हरि कुछ नहीं कर सकते थे। पिछले हफ्ते उनकी यह दिक्कत दूर हो गई, जब इंडिया इस प्रॉजेक्ट में 10 फीसदी यानी 1,000 करोड़ रुपए का पार्टनर बना। अब तीन भारतीय कंपनियां- गोल, बेंगलुरु की अवसराला और गोदरेज ऐंड बॉयस टेलीस्कोप के लिए 700 करोड़ के कंपोनेंट बनाएंगी। यह जानकारी सरकारी अधिकारियों ने दी है।

ये कंपनियां हवाई में लगने वाले टेलीस्कोप के लिए जरूरी कंपोनेंट बनाएंगी। एस्ट्रोनॉमी के क्षेत्र में यह अब तक के अहम प्रॉजेक्ट्स में से एक माना जा रहा है। इस टेलीस्कोप के लिए ऐसी टेक्नॉलजी का इस्तेमाल होगा, जो अभी हैं ही नहीं। मुरली ने कहा, 'इससे ऐसी टेक्नॉलजी डिवेलप करने में मदद मिलेगी, जो दुनिया के कुछ देशों के पास होगी।' इस प्रॉजेक्ट में अमेरिका, जापान, चीन और कनाडा भी पार्टनर हैं। अब तक जितने बड़े टेलीस्कोप बने हैं, टीएमटी उनसे तीन गुना बड़ा होगा। यह सबसे महंगा भी होगा। इस तरह के कई टेलीस्कोप दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में लगाने की योजना बन रही है। यह वैसे ऑब्जेक्ट्स की भी तस्वीर ले सकेगा, जो अभी संभव नहीं है।

दूसरे स्टार के प्लैनेट की इमेज भी कैप्चर कर सकेगा। इससे यूनिवर्स के बारे में हमारी समझ बेहतर होगी। भारत सरकार इस प्रॉजेक्ट में टीएमटी इंडिया नाम की एजेंसी के जरिए 1,000 करोड़ रुपए इन्वेस्ट करेगी। यह प्राइवेट कंपनियों को रुपए में पेमेंट करेगी। भारतीय कंपनियां जो कंपोनेंट बनाएंगी, उन्हें पहले अमेरिका के पासाडेना भेजा जाएगा। वहां से ये पार्ट्स हवाई भेजे जाएंगे, जहां टेलीस्कोप बनाया जा रहा है। 30 मीटर का टेलीस्कोप बनाना हंसी का खेल नहीं है। इसके लिए 30 मीटर के डायमीटर वाले सिंगल मिरर की जरूरत पड़ेगी। इसलिए पहले मिरर को कंपोनेंट में बांटा जाएगा।

एमिरेट्स एयरलाइंस ने स्पाइस जेट को दिया झटका

दुबई।। दुबई बेस्ड एमिरेट्स एयरलाइंस ने उन खबरों को सिरे से खारिज किया है, जिनमें कहा जा रहा था कि एमिरेट्स और स्पाइस जेट के बीच स्टेक खरीदने पर बातचीत चल रही है। एमिरेट्स ने आधिकारिक तौर पर कहा कि हमारा पूरा फोसक खुद का बिजनेस बढ़ाने पर है। एमिरेट्स ने उन उड़ती खबरों के बारे में कहा कि इन खबरों में कोई सच्चाई नहीं है। एमिरेट्स एयरलाइंस के प्रवक्ता ने डेली न्यूज पेपर 'खलीज टाइम्स' से कहा कि स्पाइस जेट में स्टेक खरीदने की हमारी कोई योजना नहीं है। प्रवक्ता ने कहा कि हम खुद का बिजनस बढ़ाने में लगे हैं, ऐसे में इंडियन एयरलाइंस स्पाइस जेट में स्टेक खरीदने का सवाल ही नहीं उठता। 

एमिरेट्स के इस बयान से पहले यह खबर गर्म थी कि स्पाइस जेट में एमिरेट्स ने स्टेक खरदीने के लिए हरी झंडी दिखा दी है। लेकिन इससे जुड़ी सारी खबरें गुमनाम सोर्स से चल रही थीं। पिछले हफ्ते उन अफवाहों को और बल मिला जब स्पाइस जेट के सीईओ नील मिल्स ने इस मिडल ईस्ट एयरलाइंस द्वारा स्टेक खरीदने की संभावना जताई थी। 

जेट एयरवेज और अबू धाबी की ऐत्तिहाद के बीच हुए समझौते से इस खबर को और हवा मिली थी। जेट-एत्तिहाद डील किसी भारतीय एयरलाइंस में पहली बार कोई फॉरन एयरलाइंस का इन्वेस्टमेंट है। देश की प्रमुख एविएशन कंपनी जेट एयरवेज ने 24 फीसदी हिस्सेदारी एत्तिहाद एयरवेज को 2,058 करोड़ रुपए में बेचने के प्लान की घोषणा की थी। कंपनी ने हिस्सेदारी बेचने के इस प्लान को स्ट्रैटेजिक अलायंस बताते हुए कहा था कि इससे कंपनी को अपना ग्लोबल नेटवर्क बढ़ाने में बड़ी मदद मिलेगी।

78 बच्चों का पिता 100 पूरे करना चाहता है : मजेदार समाचार Oddly Enough Hindi News

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एक्सक्लुसिव : यह रहा गूगल का तोहफा : मजेदार समाचार Oddly Enough Hindi News

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Thursday 4 July 2013

हिन्दू धर्मं के 7 प्रमुख तीर्थ स्थान

यूं तो हिन्दू धर्म के सैकड़ों तीर्थ स्थल है, लेकिन हम आपको बताना चाहते हैं कि उनमें से भी कुछ ऐसे तीर्थ स्थल हैं जो उन सैंकड़ों में शीर्ष पर है। यहां जाना सचमुच ही तीर्थ स्थल पर जाना माना जाता है। यह पुण्य स्थल है। आओ, जानते हैं कि कौंन-कौंन से तीर्थ स्थल है।

1.ब्रह्मा की नगरी पुष्कर: राजस्थान के अजमेर से उत्तर-पश्चिम में करीब 11 किलोमीटर दूर ब्रह्मा की यज्ञस्थली और ऋषियों की तपस्यास्थली तीर्थराज पुष्कर नाग पहाड़ के बीच बसा हुआ है। यहां ब्रह्माजी का विश्व का एक मात्र मंदिर है। मंदिर के पीछे रत्नागिरि पहाड़ पर ब्रह्माजी की प्रथम पत्नी सावित्री का मंदिर है। यज्ञ में शामिल नहीं किए जाने से कुपित होकर सावित्री ने केवल पुष्कर में ब्रह्माजी की पूजा किए जाने का शाप दिया था।

2. विष्णु की नगरी बद्रीनाथ : हिन्दुओं के चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम भगवान विष्णु का निवास स्थल है। यह भारत के उत्तरांचल राज्य में अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। गंगा नदी की मुख्य धारा के किनारे बसा यह तीर्थस्थल हिमालय में समुद्र तल से 3,050 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।



3.कैलाश मानसरोवर : मानसरोवर वह पवित्र जगह है, जिसे शिव का धाम माना जाता है। मानसरोवर के पास स्थित कैलाश पर्वत पर भगवान शिव साक्षात विराजमान हैं। यह धरती का केंद्र है। यह हिन्दुओं के लिए मक्का की तरह है।



4. काशी विश्वनाथ : उत्तरप्रदेश में गंगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित वाराणसी नगर विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक माना जाता है। इस नगर के हृदय में बसा है भगवान काशी विश्वनाथ का मंदिर जो शिव के प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि जब पृथ्वी का निर्माण हुआ था तब प्रकाश की पहली किरण काशी की धरती पर पड़ी थी। तभी से काशी ज्ञान तथा आध्यात्म का केंद्र माना जाता है।


5. श्रीराम की अयोध्या : भगवान राम की नगरी अयोध्या हजारों महापुरुषों की कर्मभूमि रही है। यह पवित्रभूमि हिन्दुओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहां पर भगवान राम का जन्म हुआ था। यह राम जन्मभूमि है।
6. कृष्ण की नगरी : हिन्दुओं के लिए मदीना की तरह है मथुरा। श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ था। मथुरा यमुना नदी के तट पर बसा एक सुंदर शहर है। मथुरा जिला उत्तरप्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। मथुरा जिले में चार तहसीलें हैं- मांट, छाता, महावन और मथुरा तथा 10 विकास खण्ड हैं- नन्दगांव, छाता, चौमुहां, गोवर्धन, मथुरा, फरह, नौहझील, मांट, राया और बल्देव हैं।

7. बुद्ध की नगरी : वैशाख माह की पूर्णिमा के दिन बुद्ध का जन्म नेपाल के लुम्बिनी में ईसा पूर्व 563 को हुआ। इसी दिन 528 ईसा पूर्व उन्होंने भारत के बोधगया में सत्य को जाना और इसी दिन वे 483 ईसा पूर्व को 80 वर्ष की उम्र में भारत के कुशीनगर में निर्वाण (मृत्यु) को उपलब्ध हुए। यह तीनों ही स्थान हिन्दू और बौद्ध के लिए महत्वपूर्ण तीर्थ है।

Wednesday 3 July 2013

तेजेन्द्र खन्ना जी जगह जनाब नजीब जंग

नई दिल्ली। दिल्ली की आवाम लम्बे समय तक दिल्ली के दो बार उपराज्यपाल रहे तेजेन्द्र खन्ना को उनके प्रशासनिक फैसले लेने के बेहद कड़े अंदाज के लिए याद करता रहेगा। तेजेन्द्र खन्ना केन्द्र व प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रहने के बावजूद दिल्ली की मुख्यमंत्री की कई बातों पर प्रशासनिक दृष्टि से निर्णय लिया, जिस कारण मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से उनके सम्बन्धों में खट्टास की बातें मीडिया की सुर्खियों में रही। चर्चा है कि दिल्ली विधानसभा  चुनाव की आहट व लम्बे समय से मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व उनके बीच का छतीस का आंकड़ा इस बदलाव का मुख्य कारण हो सकता है चर्चा यहां तक हो रही है कि ढ़ाई वर्ष पहले श्री खन्ना की जगह किसी अन्य को दिल्ली का उपराज्यपाल बनाने की कवायद शुरू हो गई थी, जिसका पटाक्षेप सोमवार को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के हस्ताक्षर के साथ हो गया। तेजेन्द्र खन्ना की जगह जनाब नजीम जंग को दिल्ली का नया उपराज्यपाल बनाया गया है। जनाब नजीम जंग जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति के पद पर आसीन थे और उनका कार्यकाल सितम्बर 2014 तक था।
नव नियुक्त उपराज्यपाल जनाब नजीब जंग दिल्ली के 20वें उपराज्यपाल बनाये गये हैं। राजधनी दिल्ली के दरियागंज क्षेत्रा में उनका जन्म 18 जनवरी 1951 में हुआ था। 62 वर्षीय जनाब नजीब जंग की प्रारम्भिक शिक्षा सेंट कोलम्बस स्कूल में हुई। सेंट स्टीपफेंस कालेज  से स्नात्तक व इतिहास में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त किया। लंदन से सोशल पोलिसी  में एमएससी की और वर्तमान में आक्सपफोर्ड विश्वविद्यालय से ऊर्जा अर्थशास्त्रा में शोध् कर रहे हैं।
1973 में जनाब नजीब जंग भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चयनित हुए थे। मध्य प्रदेश कैडर के आई.ए.एस. अधिकारी  के रूप में उन्होंने अपना कैरियर शुरू किया। मध्य प्रदेश के कई प्रशासनिक पदों पर रहने के बाद केन्द्र में पेट्रोलियम मंत्रालय में संयुक्त सचिव पद से 1993 में सेवानिवृत्ति ले ली।
जनाब नजीब जंग प्रारम्भ से पठन-पाठन में लगे रहे और कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। जब वे रेलवे मंत्रालय में थे। उस वक्त दूरदर्शन पर अंग्रेजी समाचार पढ़ते पुराने कई लोगों ने उन्हें अवश्य देखा होगा। अभिनय व लेखन की शौक के बीच वर्ष 2009 सितम्बर में उन्हें जामिया मिलिया इस्लामिया का कुलपति नियुक्त किया गया और 1 जुलाई 2013 को राष्ट्रपति के अधिसूचना के साथ वे दिल्ली के 20वें उपराज्यपाल बन चुके हैं।
तेजेन्द्र खन्ना को 1996 में आई.ए.एस. से सेवानिवृत्त होते 31 दिसम्बर 1996 को दिल्ली का उपराज्यपाल बनाया गया था और वे इस पद पर 19 अप्रैल 1998 तक रहे। जब केन्द्र में पुनः कांग्रेस की सरकार आई तो 9 अप्रैल 2007 को पुनः तेजेन्द्र खन्ना को दिल्ली का उपराज्यपाल बनाया गया । छः वर्षों से लगातार तेजेन्द्र खन्ना दिल्ली के उपराज्यपाल के रूप में अपनी सेवा दे रहे थे, अब उनकी जगह जनाब नजीब जंग को मिला है और दल्ली की आवाम नवनियुक्त  उपराज्यपाल से उम्मीद करती है कि वे दिल्ली की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने का करिश्मा वह अवश्य करेंगे।

Saturday 25 May 2013

अच्छा लगता है, जब बच्चे सिखाते हैं

बच्चे, पता ही नहीं चलता है, कब बड़े हो जाते हैं? कल तक लगता था कि इन्हें अभी कितना कुछ सीखना है, साथ ही साथ हम यही सोच कर दुबले हुये जा रहे थे कि कैसे ये इतना ज्ञान समझ पायेंगे? अभी तक उनकी गतिविधियों को उत्सुकता में डूबा हुआ स्वस्थ मनोरंजन समझते रहे, सोचते रहे कि गंभीरता आने में समय लगेगा।

बच्चों की शिक्षा में हम सहयोगी होते हैं, बहुधा प्रश्न हमसे ही पूछे जाते हैं। उत्सुकता एक वाहक रहती है, हम सहायक बने रहते हैं उसे जीवन्त रखने में। जैसा हमने चीज़ों को समझा, वैसा हम समझाते भी जाते हैं। बस यही लगता है कि बच्चे आगे आगे बढ़ रहे हैं और हम उनकी सहायता कर रहे हैं।

यहाँ तक तो सब सहमत होंगे, सब यही करते भी होंगे। जो सीखा है, उसे अपने बच्चों को सिखा जाना, सबके लिये आवश्यक भी है और आनन्दमयी भी। यहाँ तक तो ठीक भी है, पर यदि आपको लगता है कि आप उनकी उत्सुकता के घेरे में नहीं हैं, तो पुनर्विचार कर लीजिये। यदि आपको लगता उसकी उत्सुकता आपको नहीं भेदती है तो आप पुनर्चिन्तन कर लीजिये।

प्रश्न करना तो ठीक है, पर आपके बच्चे आपके व्यवहार पर सार्थक टिप्पणी करने लगें तो समझ लीजिये कि घर का वातावरण अपने संक्रमण काल में पहुँच गया है। टिप्पणी का अधिकार बड़ों को ही रहता है, अनुभव से भी और आयु से भी। श्रीमतीजी की टिप्पणियों में एक व्यंग रहता है और एक आग्रह भी। बच्चों की टिप्पणी यदि आपको प्राप्त होने लगे तो समझ लीजिये कि वे समझदार भी हो गये और आप पर अधिकार भी समझने लगे। उनकी टिप्पणी में क्या रहता है, उदाहरण आप स्वयं देख लीजिये।

हम भी समझाने में सक्षम हैं
बिटिया कहती हैं कि आप पृथु भैया को को ठीक से डाँटते नहीं हैं। जब समझाना होता है, तब कुछ नहीं बोलते हो। जब डाँटना होता है, तब समझाने लगते हो। जब ढंग से डाँटना होता है, तब हल्के से डाँटते हो और जब पिटाई करनी होती है तो डाँटते हो। ऐसे करते रहेंगे तो वह और बिगड़ जायेगा। हे भगवान, दस साल की बिटिया और दादी अम्मा सा अवलोकन। क्या करें, कुछ नहीं बोल पाये, सोचने लगे कि सच ही तो बोल रही है बिटिया। अब उसे कैसे बतायें कि हम ऐसा क्यों करते हैं? अभी तो प्रश्न पर ही अचम्भित हैं, थोड़ी और बड़ी होगी तो समझाया जायेगा, विस्तार से। उसके अवलोकन और सलाह को सर हिला कर स्वीकार कर लेते हैं।

पृथु कहते हैं कि आप इतना लिखते क्यों हो, इतना समय ब्लॉगिंग में क्यों देते हो? आपको लगता नहीं कि आप समय व्यर्थ कर रहे हो, इससे आपको क्या मिलता है? थोड़ा और खेला कीजिये, नहीं तो बैठे बैठे मोटे हो जायेंगे। चेहरे पर मुस्कान भी आती है और मन में अभिमान भी। मुस्कान इसलिये कि इतना सपाट प्रश्न तो मैं स्वयं से भी कभी नहीं पूछ पाया और अभिमान इसलिये कि अधिकारपूर्ण अभिव्यक्ति का लक्ष्य आपका स्वास्थ्य ही है और वह आपका पुत्र बोल रहा है।

हमें भी गम्भीरता से लें

ऐसा कदापि नहीं है कि यह एक अवलोकन मात्र है। यदि उन्हे मेरी ब्लॉगिंग के ऊपर दस मिनट बोलने को कहा जाये तो वह उतने समय में सारे भेद खोल देंगे। पोस्ट छपने के एक दिन पहले तक यदि पोस्ट नहीं लिख पाया हूँ तो वह उन्हें पता चल जाता है। यदि अधिक व्यग्रता और व्यस्तता दिखती है तो कोई पुरानी कविता पोस्ट कर देने की सलाह भी दे देते हैं, पृथुजी। लगता है कि कहीं भविष्य में मेरे लेखन की विवेचना और समीक्षा न करने लगें श्रीमानजी।

आजकल हम पर ध्यान थोड़ा कम है, माताजी और पिताजी घर आये हैं, दोनों की उत्सुकता के घेरे में इस समय दादा दादी हैं। न केवल उनसे उनके बारे में जाना जा रहा है, वरन हमारे बचपन के भी कच्चे चिट्ठे उगलवाये जा रहे हैं। कौन अधिक खेलता था, कौन अधिक पढ़ता था, कौन किससे लड़ता था, आदि आदि। मुझे ज्ञात है कि इन दो पीढ़ियों का बतियाना किसी दिन मुझे भारी पड़ने वाला है। माताजी और पिताजी भले ही बचपन में मुझे डाँटने आदि से बचते रहे, पर मेरे व्यवहार रहस्य बच्चों को बता कर कुछ न कुछ भविष्य के लिये अवश्य ही छोड़े जा रहे हैं।

कई बच्चे अपने माता पिता को अपना आदर्श मानते हैं, उनकी तरह बनना चाहते हैं। पर जब उनके अन्दर यह भाव आ जाये कि उन्हे थोड़ा और सुधारा जा सकता है, थोड़ा और सिखाया जा सकता है तो वे अपने आदर्शों को परिवर्धित करने की स्थिति में पहुँच गये हैं। उनके अन्दर वह क्षमता व बोध आ गया है जो वातावरण को अपने अनुसार ढालने में सक्षम है। समय आ गया है कि उन्होंने अपनी राहों की प्रारम्भिक रूपरेखा रचने का कार्य भलीभाँति समझ लिया है।

पता नहीं कि हम कितना और सुधरेंगे या सँवरेंगे, पर जब बच्चे सिखाते हैं तब बहुत अच्छा लगता है।

Wednesday 22 May 2013

भीषण गर्मी और जाम

देश की राजधानी दिल्ली हमेशा गुलिस्तान होती है मगर कभी कभार परेशान होती है। इन दिनों दिलवालों की दिलदार दिल्ली जानलेवा गर्मी और जाम से परेशान है। दूसरे शब्दों में कहें तो `एक करेला दूसरा नीम' चढ़ा वाली हालत बनी हुई है। बढ़ता, चढ़ता हुआ पारा सभी को बेचारा बना रहा है। मई में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस पहुंच रहा है, आने वाले दिनों में क्या होगा? गर्मी अपने पूरे शबाब पर है और गर्मी कोई नरमी भी नहीं दिखा रही। गर्मी से बदहाल होने का एक कारण यह भी है कि सड़कों पर लाखों एसी कारें और सैकड़ों एसी बसें दौड़ती हैं। इन वाहनों से बाहर निकल रही गर्मी भी तो परेशानी बढ़ा रही है।
इस बीच सड़कों पर कई कारणों से लंबा जाम लगता है। किसी ने बिल्कुल सही कहा कि दिल्ली तेज लू और ली से दिक्कतें झेल रही है। लू से तो आप सभी वाकिफ हैं मगर ली ने भी तो जान ले ली है। ली यानी पड़ोसी देश के पधानमंत्री। ये जनाब तीन दिन के लिए दिल्ली यात्रा पर आए हैं और इनकी सुरक्षा को देखते हुए कई सड़कें और मेट्रो स्टेशन बंद किए गए और जाम का अंजाम यह हुआ कि दिल्ली ठहर गई। लू की वजह से पसीने में तर बतर दिल्ली की जाम में सांसें अटकने लगीं। इसके अलावा आईपीएल के मैच से भी जाम लगता है। दिल्ली गर्मी और जाम से राहत चाहती है मगर यह राहत देना किसी के हाथ में नहीं। बादल दिखाई देंगे तो राहत की उम्मीद भी होगी।

उत्तर पदेश में पिछली सरकार ने पार्कों में थोक में मूर्तियां और हाथी लगवाए। कहते हैं इस मामले में 1400 करोड़ रुपए बहा दिए गए। अब पदेश के लोकायुक्त ने यह रकम दो पूर्व मंत्रियों से वसूलने के आदेश दिए हैं। कमाल यह है कि पूर्व मुख्यमंत्री को बेगुनाह माना गया है।

यूएई यानी सउदी अरब में शानदार बुनियादी ढांचा बनाने में भारत के कामगारों का बड़ा हाथ है। अब वहां एक कानून बनाकर केवल उसी देश के लोगों को काम देने का हुक्म दिया गया है। जितनी हिम्मत, कुब्बत और कौशल हिन्दुस्तानियों में है उतना किसी और मुल्क के लोगों में कहां। बहरहाल 60 हजार भारतीय कामगारों को खतरा है मगर वहां के लोग तो बने बनाए बुनियादी ढांचे का शायद रख रखाव भी कर नहीं पाएंगे।

Monday 15 April 2013

हमारी मौत के बाद तुम, देशी घी के दिये जला लेना..!

हमारी मौत पर तुम
देशी घी के दिये जला लेना,
तुम्हे मुक्ति मिल जाएगी
निर्भीक - निष्पक्ष कलम से
हमें मुक्ति मिल जायेगी
कर्मयोग के दायित्व से ।





 


मुझे ज्ञात है मित्र
तुम मेरे दोस्त हो,
पैसे की हवस ने तुम्हे
धृतराष्ट्र बना दिया है
सच्चा कलम का सिपाही
तेरे रास्ते में आ खड़ा हो गया है।

तुम लाचार हो, विवश हो, अंधे हो चुके हो..
पता नही तुम्हें, तुम क्या कर रहे हो,
अत्याचार, दोहन, शोषण, राष्ट्र के साथ..
गद्दारी, तुम्हारे खून में समां चूका है
वफ़ादारी, देश भक्ति, हमें विरासत में मिला है।

क्या करूं! ईश्वर ने हमें कलम दिया है,
न लिख पाया, सत्यमेव जयते तो,
रब को कैसे मुंह दिखाऊंगा,
तुम रूठ गये तो भी वक्त कट जायेगा,
ईश्वर रूठ गया तो, मुक्ति कैसे पाउँगा ।

हे मित्र! मुझे सत्य के पथ पर चलने दो
हमारी मौत के बाद तुम,
देशी घी के दिये जला लेना, देशी घी के दिये जला लेना .....!

Monday 11 March 2013

मन को शांत रखने से मिलते हैं समाधान..!


जीवन में व्यक्ति और समाज दोनों का महत्व है। व्यक्ति है तो समाज है , समाज और उसका अनुशासन है जो लोगों को उनके जीने का सही अर्थ बताता है। चूंकि व्यक्ति समाज से जुड़कर ही जीता है , इसलिए यह स्वाभाविक है कि वह खुद को समाज की आंखों से भी देखने का प्रयास करता है। ऐसा करते समय समझदार लोगों में यह विवेक रहता है कि ' मैं जो हूं , जैसा भी हूं - इसका मैं स्वयं जिम्मेदार हूं। ' लेकिन नासमझ व्यक्ति अपनी कमियों के लिए आसपास के लोगों और समाज में ही खोट बताने लगता है। जब कोई उसकी बात से सहमत नहीं होता , तो ऐसी स्थिति में वह बहुत हताश हो जाता है।

अक्सर हम सब सोचते हैं कि यदि अवसर मिलता तो कुछ शानदार काम करते। कई बार लोग सिर्फ अवसरों के अभाव को दोष रहते हैं और जीवन भर कुछ भी ऐसा नहीं कर पाते जिसे वे खुद की नजर में ही श्रेष्ठ मानते हों। लेकिन कई बार जरा सा प्रयास करने पर ही लोग अपने लिए अवसर खोज लेते हैं। जैसे एक कलाकार अपनी श्रेष्ठ कृति बनाने के लिए जरूरी एकांत खोज ही लेता है। कवि किसी निर्जन जगह पर जाकर अपने शब्द पिरोने लगता है। योगी शांत परिवेश में स्वयं को टटोल लेता है और वांछित ज्ञान हासिल कर लेता है। छात्र परीक्षा की तैयारी के लिए रातों को जागते हैं , क्योंकि उस समय शांति होती है और उस समय कोई उन्हें परेशान नहीं करता। कई बार आम लोग भी दफ्तर और परिवार की गहन समस्याओं पर विचार करने के लिए या व्यापार व्यवसाय की लाभ - हानि के द्वंद्व से पीछा छुड़ाने के लिए थोड़ी देर कहीं जाकर अकेले में बैठते हैं।

योगी और ध्यानी कहते हैं कि आंखें बंद करो और चुपचाप बैठ जाओ। मन में किसी तरह के विचार को न आने दो - समस्याओं से जूझने का यह एक तरीका है। पर गीता का ज्ञान तो वहां दिया गया जहां दोनों ओर युद्ध के लिए सेनाएं तैयार खड़ी थीं। श्रीकृष्ण को ईश्वर का रूप मान लें तो उन्हें सुनने वाले अर्जुन तो सामान्य जन ही थे। आज भी खिलाड़ी हजारों दर्शकों के शोर के बीच अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। अर्जुन ने भरी सभा में मछली की आंख को भेदा था। असल में सृजन और एकाग्रता के लिए , जगत के नहीं , मन के कोलाहल से दूर जाना होता है।

एक जिज्ञासु अपनी समस्याओं के समाधान के लिए संत तुकाराम के जा पास पहुंचा। उसने देखा तुकाराम एक दुकान में बैठे कारोबार में व्यस्त थे। वह दिन भर उनसे बात करने की प्रतीक्षा करता रहा और संत तुकाराम सामान तौल - तौल कर बेचते रहे। दिन ढला तो वह बोला , ' मैं आप जैसे परम ज्ञानी संत की शरण में ज्ञान पाने आया था , समाधान पाने आया था , लेकिन आप तो सारा दिन केवल दुकानदारी ही करते रहे। आप कैसे ज्ञानी हैं ? आपको प्रभु भजन या धूप , दिया - बाती करते तो एक बार भी नहीं देखा। मैं समझ नहीं पाया कि लोग आपको संत क्यों मानते हैं ?' इस पर संत तुकाराम बोले , ' मेरे लिए मेरा काम ही पूजा है। मैं कारोबार भी प्रभु की आज्ञा मान कर करता हूं। जब - जब सामान तौलता हूं , तराजू के कांटे पर नजर रहने के साथ मेरे मन में यह सवाल रहता है कि तू जाग रहा है न ? तू समता में स्थित है या नहीं ? साथ - साथ हर बार ईश्वर का स्मरण करता हूं। मेरा हर पल और हर कार्य ईश्वर की आराधना है। ' इस तरह जिज्ञासु ने कर्म और भक्ति का पाठ सीख लिया।

कोई भी काम हो , कैसा भी उद्देश्य हो , उसमें सफलता सिर्फ प्रार्थना करने , दूसरों की खामियां निकालने , व्यवस्था को कोसने अथवा अभावों का रोना रोने से नहीं मिलती। किसी भी कार्य में सफलता तब मिलती है जब किसी उद्देश्य को लेकर हम एकाग्र हों और पूरे समर्पण से वह कार्य करें।

चाहे यह उद्देश्य ईश्वर को पाना ही क्यों न हो। पर आजकल तो ज्यादातर लोग ईश्वर की आराधना भी तब करते हैं , जब वे किसी कष्ट में होते हैं। जब उन्हें ईश्वर से कुछ मांगना होता है। ध्यान रहे कि इस तरह मांगने से भगवान कुछ देने वाला नहीं है। भगवान उन्हीं को देता है जो एकाग्रता और पवित्रता के साथ अपना कर्म करते हैं।

Thursday 7 March 2013

उजाले और चकाचौंध के भीतर ख़ौफ़नाक अँधेरा...!

भारतीय सभ्यता में, अजंता और खजुराहो की गुफाएँ (आज भी बता रही हैं कि) औरत के शील को सार्वजनिक स्तर पर कितना मूल्यहीन व अपमानित किया गया, जिसको शताब्दियों से आज तक, शिल्पकला के नाम पर जनसाधारण की यौन-प्रवृत्ति के तुष्टिकरण और मनोरंजन का साधन बनने का ‘श्रेय’ प्राप्त है। ‘देवदासी’ की हैसियत से देवालयों (के पवित्र प्रांगणों) में भी उसका यौन शोषण हुआ। अपेक्षित पुत्र-प्राप्ति के लिए पत्नी का परपुरुषगमन (नियोग) जायज़ तथा प्रचलित था। ‘सती प्रथा’ के विरुद्ध वर्तमान में क़ानून बनाना पड़ा जिसका विरोध भी होता रहा है। वह पवित्र धर्म ग्रंथ वेद का न पाठ कर सकती थी, न उसे सुन सकती थी। पुरुषों की धन-सम्पत्ति (विरासत) में उसका कोई हिस्सा नहीं था यहाँ तक कि आज भी, जो नारी-अधिकार की गहमा-गहमी और शोर-शराबा का दौर है, कृषि-भूमि में उसके विरासती हिस्से से उसे पूरी तरह वंचित रखा गया है।

नारी जाति की वर्तमान उपलब्धियाँ—

शिक्षा, उन्नति, आज़ादी, प्रगति और आर्थिक व राजनीतिक सशक्तीकरण आदिदृयक़ीनन संतोषजनक, गर्वपूर्ण, प्रशंसनीय व सराहनीय हैं। लेकिन नारी-जाति के हक़ीक़ी ख़ैरख़ाहों, शुभचिंतकों व उद्धारकों पर लाज़िम है कि वे खुले मन-मस्तिष्क से विचार व आकलन करें कि इन उपलब्धियों की क्या, कैसी और कितनी क़ीमत उन्होंने नारी-जाति से वसूल की है तथा स्वयं नारी ने अपनी अस्मिता, मर्यादा, गौरव, गरिमा, सम्मान व नैतिकता के सुनहरे, मूल्यवान सिक्कों से कितनी बड़ी क़ीमत चुकाई है। जो कुछ, जितना कुछ उसने पाया उसके लिए क्या कुछ, कितना कुछ गँवा बैठी। नई तहज़ीब की जिस राह पर वह बड़े जोश व ख़रोश से चल पड़ीद—बल्कि दौड़ पड़ीद—है उस पर कितने काँटे, कितने विषैले व हिंसक जीव-जन्तु, कितने गड्ढे, कितने दलदल, कितने ख़तरे, कितने लुटेरे, कितने राहज़न, कितने धूर्त मौजूद हैं।
आधुनिक सभ्यता और नारी-

--व्यापक अपमान--

*समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं में रोज़ाना औरत के नग्न, अर्धनग्न, लगभग पूर्ण-नग्न अपमानजनक चित्रों का प्रकाशन।

*सौंदर्य-प्रतियोगिता...अब तो ‘‘विशेष अंग प्रतियोगिता’’ भी...तथा फ़ैशन शो/रैम्प शो के ‘कैट वाक’ में अश्लीलता का प्रदर्शन और टी॰वी॰ चैनल्स द्वारा वैश्वीय (Global) प्रसारण।
* कार्पोरेट बिज़नस और सामान्य व्यवपारियों/उत्पादकों द्वारा संचालित विज्ञापन प्रणाली में औरत का ‘बिकाऊ नारीत्व’ (Woomanhood For Sale)।
* सिनेमा, टी॰वी॰ के परदों पर करोड़ों-अरबों लोगों को औरत की अभद्र मुद्राओं में परोसे जाने वाले चलचित्राद—दिन-प्रतिदिन और रात दिन।
* इंटरनेट पर ‘पोर्नसाइट्स’। लाखें वेब-पृष्ठों पर औरत के ‘इस्तेमाल’ के घिनावने, बेहूदा चित्र (जिन्हें देखकर शायद शैतान को भी लज्जा का आभास हो उठे)।
* फ्रेन्डशिप क्लब्स, फोन/मोबाइल फोन सर्विस द्वारा युवतियों से ‘दोस्ती’।

--- यौन अपराध---
● बलात्कार—दो वर्ष की बच्ची से लेकर अस्सी वर्षीया वृद्धा से—ऐसा नैतिक अपराध है जिसकी ख़बरें अख़बारों में पढ़कर समाज के कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती, मानो किसी गाड़ी से कुचल कर कोई चुहिया मर गई हो—बस।
● ‘‘सामूहिम बलात्-दुष्कर्म’’ के शब्द इतने आम हो गए हैं कि समाज ने ऐसी दुर्घटनाओं की ख़बर पढ़, सुनकर बेहिसी व बेफ़िकरी का ख़ुद को आदी बन लिया है।
● युवतियों, बालिकाओं, किशोरियों का अपहरण, उनके साथ हवसनाक ज़्यादती—सामूहिक ज़्यादती भी—और फिर हत्या।
● सेक्स माफ़िया द्वारा औरतों के बड़े-बड़े, संगठित कारोबार। यहाँ तक कि परिवार से धुतकारी, समाज से ठुकराई हुई विधवाएँ भी, विधवा-आश्रमों में सुरक्षित नहीं।
● विवाहिता स्त्रियों का पराए पुरुषों से संबंध (Extra Marital Relations), इससे जुड़े अन्य अपराध, हत्याएँ और परिवारों का टूटना-बिखरना।

---यौन-शोषण (Sexual Exploitation)---

● देह व्यापार, गेस्ट हाउसों, बहुतारा होटलों में अपनी ‘सेवाएँ’ अर्पित करने वाली सम्पन्न व अल्ट्रामाडर्न कालगर्ल्स।
● ‘रेड लाइट एरियाज़’ में अपनी सामाजिक बेटियों-बहनों की आबरू की ख़रीद-फ़रोख़्त (क्रय-विक्रय)। वेश्यालयों को समाज व प्रशासन की ओर से मंज़ूरी। सेक्स वर्कर, सेक्स ट्रेड और सेक्स इण्डस्ट्री जैसे ‘आधुनिक’ नामों से नारी-शोषण तंत्र की इज़्ज़त अफ़ज़ाई (Glorification) व सम्मानीकरण।
● नाइट क्लबों और डिस्कॉथेक्स में औरतों व युवतियों के वस्त्रहीन अश्लील डांस।
● हाई सोसाइटी गर्ल्स, बार गर्ल्स के रूप में नारी-यौवन व सौंदर्य की शर्मनाक दुर्गति।


---औरतों पर पारिवारिक यौन-अत्याचार व अन्य ज़्यादतियाँ---


● बाप-बेटी, भाई-बहन के पवित्र, पाकीज़ा रिश्ते भी अपमानित।
● जायज़ों के अनुसार बलात् दुष्कर्म के लगभग पचास, प्रतिशत मामलों में निकट संबंधी मुलव्वस (Incest)।
●  दहेज़-संबंधित अत्याचार व उत्पीड़न। जलाने, हत्या कर देने, आत्महत्या पर मजबूर कर देने, सताने, बदसलूकी करने, मानसिक यातना देने, अपमानित व प्रताड़ित करने के नाक़ाबिले शुमार वाक़ियात। 
● दहेज़ पर भारी-भारी रक़में और शादी के अत्यधिक ख़र्चों के लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन न होने के कारण अनेकानेक युवतियाँ शादी से वंचित, मानसिक रोग की शिकार, आत्महत्या। कभी माता-पिता को शादी के ख़र्च के बोझ तले पिसते देखना सहन न कर सकने से कई-कई बहनों की एक साथ ख़ुदकुशी।

--कन्या भ्रूण-हत्या (Female Foeticide) और कन्या-वध (Female Infanticide)--


● बच्ची का क़त्ल, उसके पैदा होने से पहले माँ के पेट में ही। कारण : दहेज़ व विवाह का क्रूर निर्दयी शोषण-तंत्र।
● पूर्वी भारत के एक इलाक़े में रिवाज़ है कि अगर लड़की पैदा हुई तो पहले से तयशुदा ‘फीस’ के एवज़ दाई उसकी गर्दन मरोड़ देगी और घूरे में दबा आएगी। कारण? वही...‘दहेज़ और शादी के नाक़ाबिले बर्दाश्त ख़र्चे।’ कन्या-वध (Female Infanticide) के इस रिवाज के प्रति नारी-सम्मान के ध्वजावाहकों की उदासीनता (Indiference)।


--सहमति यौन-क्रिया (Fornication)--


● अविवाहित रूप से नारी-पुरुष के बीच पति-पत्नी का संबंध (Live in Relation)। पाश्चात्य सभ्यता का ताज़ा तोहफ़ा। स्त्री का ‘सम्मानपूर्ण’ अपमान।
● स्त्री के नैतिक अस्तित्व के इस विघटन से न क़ानून को कुछ लेना-देना, न नारी जाति के ‘शुभ-चिंतकों’ को, न पूर्वीय सभ्यता के गुणगायकों को, और न ही नारी-स्वतंत्रता आन्दोलन (Women Liberation Movement) की पुरजोश कार्यकर्ताओं (Activists) को।
● ससहमति अनैतिक यौन-क्रिया (Consensual Sex) की अनैतिकता को मानव-अधिकार (Human Right) नामक ‘नैतिकता’ का मक़ाम हासिल। क़नून इसे ग़लत नहीं मानता, यहाँ तक कि उस अनैतिक यौन-आचार (Incest) को भी क़ानूनी मान्यता प्राप्ति जो आपसी  सहमति से बाप-बेटी, भाई-बहन, माँ-बेटा, दादा-पोती, नाना-नतिनी आदि के बीच घटित हो।

Thursday 31 January 2013


[29 Jan 2013]   हिन्दी पत्राकारिता व निर्भीक, निष्पक्ष प्रकाशन के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर ललित 'सुमन' का नाम आज सम्मान पूर्वक लिया जाता है। दैनिक इंडिया दर्पण समाचार पत्र , मदर इंडिया पत्रिका, डी.आई.डी टी.वी डॉट इन व जी आई एल टी.वी डॉट इन ग्रूप के प्रधन संपादक ललित ‘सुमन’ को अब तक पत्राकारिता के क्षेत्र में निर्मीक व निष्पक्ष पत्राकारिता के लिए अनेक बार सम्मानित किया जा चुका है। इसी कड़ी में हिमालय और हिन्दुस्तान फाउंडेशन व न्यूज पेपर्स एण्ड मैगजीन फैडरेशन ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रपति अध्यक्ष डा रवि रस्तोगी ने हृषिकेश, देहरादूनद्ध उत्तराखंड में आयोजित 9वें राष्ट्रीय ज्योतिष-आयुष, प्राकृतिक चिकित्सा-मीडिया महासम्मेलन एवं सम्मान समारोह-2012 के अवसर पर ललित ‘सुमन’ को हिमालय और हिन्दुस्तान गौरव एवार्ड-2012 सम्मान से अलंकृत किया गया।
आल इंडिया स्माल एण्ड मीडियम न्यूज पेपर्स फेडरेशन के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष व लापा मीडिया ग्रूप के ग्रूप एडीटर ललित ‘सुमन’ ने हिमालय और हिन्दुस्तान फाउन्डेशन के निदेशक को यह आवार्ड प्रदान करने के लिए धन्यवाद देते हुए कहा है कि आप धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि एक फेडरेशन दूसरे फेडरेशन को अपना प्रतिद्वन्दी मानता है लेकिन आपने मानवता का जो उत्कृष्ट उदाहरण कि प्रस्तुत है इसके लिए हम दिल से आपका आभार व्यक्त करते हैं।
आज से पैंतीस वर्ष पहले हमने जब पत्राकारिता के क्षेत्र में पहला कदम रखा था उस वक्त हमारी यही इच्छा थी कि हम निर्भीक व निष्पक्ष होकर सत्यमेव जयते लिख सके।
अपने पत्राकारिता के इन 35 वर्षों में हमने कई उतार चढ़ाव देखें हैं लेकिन आज भी हमारा यही प्रयास है कि सत्यमेव जयते ही कलम लिखे।
जिन-जिन महानुभावों ने अब तक कलम के इस सिपाही को प्यार व स्नेह के साथ सम्मान दिया है उनका हम आभारी ह और जिन लोगों ने कलम पर प्रहार कर सत्यमेव जयते के रास्ते में बाध उत्पन्न किया उन सभी को हम दिल से सम्मान करते हैं। क्योंकि हमें उस विरोध व प्रहार से आत्मज्ञान हुआ और स्वामी विवेकनंद की वह पंक्ति बार-बार मेरे दिल व दिमाग में कौंध, हर काम को तीन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है, उपहास, विरोध् व स्वीकृति । साथ ही उनका यह कथन पवित्राता, धैर्य और कोशिश के द्वारा सारी बाधाएँ दूर हो जाती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी महान कामों को पूरा होने में वक्त तो लगता ही है।