Monday 11 March 2013

मन को शांत रखने से मिलते हैं समाधान..!


जीवन में व्यक्ति और समाज दोनों का महत्व है। व्यक्ति है तो समाज है , समाज और उसका अनुशासन है जो लोगों को उनके जीने का सही अर्थ बताता है। चूंकि व्यक्ति समाज से जुड़कर ही जीता है , इसलिए यह स्वाभाविक है कि वह खुद को समाज की आंखों से भी देखने का प्रयास करता है। ऐसा करते समय समझदार लोगों में यह विवेक रहता है कि ' मैं जो हूं , जैसा भी हूं - इसका मैं स्वयं जिम्मेदार हूं। ' लेकिन नासमझ व्यक्ति अपनी कमियों के लिए आसपास के लोगों और समाज में ही खोट बताने लगता है। जब कोई उसकी बात से सहमत नहीं होता , तो ऐसी स्थिति में वह बहुत हताश हो जाता है।

अक्सर हम सब सोचते हैं कि यदि अवसर मिलता तो कुछ शानदार काम करते। कई बार लोग सिर्फ अवसरों के अभाव को दोष रहते हैं और जीवन भर कुछ भी ऐसा नहीं कर पाते जिसे वे खुद की नजर में ही श्रेष्ठ मानते हों। लेकिन कई बार जरा सा प्रयास करने पर ही लोग अपने लिए अवसर खोज लेते हैं। जैसे एक कलाकार अपनी श्रेष्ठ कृति बनाने के लिए जरूरी एकांत खोज ही लेता है। कवि किसी निर्जन जगह पर जाकर अपने शब्द पिरोने लगता है। योगी शांत परिवेश में स्वयं को टटोल लेता है और वांछित ज्ञान हासिल कर लेता है। छात्र परीक्षा की तैयारी के लिए रातों को जागते हैं , क्योंकि उस समय शांति होती है और उस समय कोई उन्हें परेशान नहीं करता। कई बार आम लोग भी दफ्तर और परिवार की गहन समस्याओं पर विचार करने के लिए या व्यापार व्यवसाय की लाभ - हानि के द्वंद्व से पीछा छुड़ाने के लिए थोड़ी देर कहीं जाकर अकेले में बैठते हैं।

योगी और ध्यानी कहते हैं कि आंखें बंद करो और चुपचाप बैठ जाओ। मन में किसी तरह के विचार को न आने दो - समस्याओं से जूझने का यह एक तरीका है। पर गीता का ज्ञान तो वहां दिया गया जहां दोनों ओर युद्ध के लिए सेनाएं तैयार खड़ी थीं। श्रीकृष्ण को ईश्वर का रूप मान लें तो उन्हें सुनने वाले अर्जुन तो सामान्य जन ही थे। आज भी खिलाड़ी हजारों दर्शकों के शोर के बीच अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। अर्जुन ने भरी सभा में मछली की आंख को भेदा था। असल में सृजन और एकाग्रता के लिए , जगत के नहीं , मन के कोलाहल से दूर जाना होता है।

एक जिज्ञासु अपनी समस्याओं के समाधान के लिए संत तुकाराम के जा पास पहुंचा। उसने देखा तुकाराम एक दुकान में बैठे कारोबार में व्यस्त थे। वह दिन भर उनसे बात करने की प्रतीक्षा करता रहा और संत तुकाराम सामान तौल - तौल कर बेचते रहे। दिन ढला तो वह बोला , ' मैं आप जैसे परम ज्ञानी संत की शरण में ज्ञान पाने आया था , समाधान पाने आया था , लेकिन आप तो सारा दिन केवल दुकानदारी ही करते रहे। आप कैसे ज्ञानी हैं ? आपको प्रभु भजन या धूप , दिया - बाती करते तो एक बार भी नहीं देखा। मैं समझ नहीं पाया कि लोग आपको संत क्यों मानते हैं ?' इस पर संत तुकाराम बोले , ' मेरे लिए मेरा काम ही पूजा है। मैं कारोबार भी प्रभु की आज्ञा मान कर करता हूं। जब - जब सामान तौलता हूं , तराजू के कांटे पर नजर रहने के साथ मेरे मन में यह सवाल रहता है कि तू जाग रहा है न ? तू समता में स्थित है या नहीं ? साथ - साथ हर बार ईश्वर का स्मरण करता हूं। मेरा हर पल और हर कार्य ईश्वर की आराधना है। ' इस तरह जिज्ञासु ने कर्म और भक्ति का पाठ सीख लिया।

कोई भी काम हो , कैसा भी उद्देश्य हो , उसमें सफलता सिर्फ प्रार्थना करने , दूसरों की खामियां निकालने , व्यवस्था को कोसने अथवा अभावों का रोना रोने से नहीं मिलती। किसी भी कार्य में सफलता तब मिलती है जब किसी उद्देश्य को लेकर हम एकाग्र हों और पूरे समर्पण से वह कार्य करें।

चाहे यह उद्देश्य ईश्वर को पाना ही क्यों न हो। पर आजकल तो ज्यादातर लोग ईश्वर की आराधना भी तब करते हैं , जब वे किसी कष्ट में होते हैं। जब उन्हें ईश्वर से कुछ मांगना होता है। ध्यान रहे कि इस तरह मांगने से भगवान कुछ देने वाला नहीं है। भगवान उन्हीं को देता है जो एकाग्रता और पवित्रता के साथ अपना कर्म करते हैं।

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