Saturday 12 October 2013

देश की वर्तमान दशा और बुद्धिजीवी

उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के इस दौर ने मनुष्य को बाजार की वस्तु बना दिया है। उसका इसी आधार पर आकलन होने लगा है। विदेशी पूंजी अपने साथ अपनी सभ्यता लेकर आती है। इसका हमला प्रत्यक्ष रूप से दिखार्इ नहीं देता। लेकिन दिल-दिमाग के भीतर तक पैठ बना लेता है। राजनीतिक गुलामी प्रत्यक्ष होती है। अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया था। अपने शासन को स्थायित्व देने के लिये उन्होंने राजनीतिक व प्रशासनिक मोर्चे को अपर्याप्त माना था। इसके समक्ष आने वाली चुनौतियों को उन्होंने समय से पहले समझ लिया था। वह जानते थे कि ब्रिटिस शासकों के खिलाफ भारत के लोग आन्दोलन कर सकते हैं। शासक जब सामने होते हैं, उनसे लड़ा जा सकता है। उनकी सत्ता को चुनौती दी जा सकती है। बि्रटिश शासकों के सामने ऐसी परिसिथतियां सामने आयी थीं। इसलिए उन्होंने अपने को प्रशासनिक-राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित नहीं रखा था। सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र को भी योजनाबद्ध ढंग से प्रभावित करने की रणनीति पर अमल किया। वह भारतीयों के ऐसे वर्ग का निर्माण चाहते थे, जो मानसिक रूप से पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति के वशीभूत हो। उसका रंग भले ही काला हो, लेकिन जीवन-शैली अंग्रेजों जैसी हो। अंग्रेजों की दिखने की उसमें इच्छा हो। अंग्रेजी भाषा पर उसे गर्व हो। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में उसका लगाव न हो। मैकाले की सोच चल निकली। अंग्रेज भारतीयों का ऐसा वर्ग बनाने में सफल रहे। लेकिन उस समय भी भारतीय चिन्तन से प्रभावित बुद्धिजीवियों की समानान्तर धारा प्रवाहित हो रही थी। वह जानते थे कि भारतीय समाज में कतिपय कमियां हो सकती हैं। जातीय भेदभाव हो सकते हैं। 
लेकिन इसका समाधान अंग्रेज नहीं कर सकते। वह अपना स्वार्थ पूरा करने के लिये भारत में थे। भारत का हित करना उनका उद्देश्य नहीं था। उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसे ही बुद्धिजीवियों ने स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार का नारा बुलन्द किया। महर्षि अरविन्द जैसे लोगों ने बेडि़यों में जकड़ी भारत माता के रूप से लोगों को परिचित कराया। यहां के सभी लोग भारत माता की सन्तान हैं। इस आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। यह चिन्तन भी कोर्इ नयी नहीं था। यह प्राचीन भारतीय विरासत थी। समस्याएं बाद में उत्पन्न हुर्इं। लेकिन अंग्रजों के लिये यह अच्छी बात थी। फूट डालो राज करो की नीति पर उनका चलना आसान था। बि्रटिश सत्ता से सुधार की उम्मीद करने वाले भ्रम में थे। बुद्धिजीवियों ने मार्ग दिखाया। स्वतंत्रता का कोर्इ विकल्प नहीं हो सकता। स्वशासन के बल पर ही हम अपनी कमजोरियों को दूर कर सकते हैं। इसके पहले भी भारत में बुद्धिजीवियों ने समय-समय पर 
सुधारवादी आन्दोलन चलाए। इसी का परिणाम था कि भारत अपवाद को छोड़कर कभी सांस्कृतिक रूप से परतंत्र नहीं हुआ।
कुछ बात है कि हस्ती
मिटती नहीं अपनी।
बात यही थी। गुलामी के लम्बे दौर में भी सांस्कृतिक चेतना के दीपकों को रौशन रखा गया।
हवा भी चलती रही
और दीप भी चलते रहे।
यह बुद्धिजीवियों की भूमिका थी, जिसने सदियों की गुलामी के बाद भी भारतीय सभ्यता-संस्कृति को दम तोड़ने नहीं दिया। जबकि विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताएं समय के थपेड़ों में विलुप्त हो गयीं।
लेकिन सम्राज्यवादी शकितयां आज भी सक्रिय हैं। प्रभावी हैं। केवल इनका स्वरूप बदला है। अब सांस्कृति आक्रमण हो रहा है। इसमें आक्रमणकारी प्रत्यक्ष नहीं है। यह हमारी जीवनशैली बदल रहा है। जो काम अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासन में बहुत धीमी गति से हो रहा था। वह अब बहुत तीव्र गति में चल रहा है। उपभोक्तावाद हमारे मन-मसितष्क पर हावी हो रहा है। बाजार दशा-दिशा तय कर रहा है। त्यौहारों का स्वरूप बदल रहा है। उसका आध्यातिमक महत्व कम हो रहा हैं बाजार उन्हें अपने मुनाफे के लिये बदल रहा है। अक्षय-तृतीया में किसका और किस प्रकार पूजन होना चाहिए, इसका मतलब नहीं रहा। बाजार बता रहे हैं- इस दिन सोना खरीदना जरूरी है। गरीब क्या करे। ठगा सा देख रहा है। दीपावली अपने नाम की सार्थकता खो रहा है। बाजार तरह-तरह की झालरों से आकर्षित कर रहा है। चीन भी इसमें पीछे नहीं। पटाखों का जखीरा सामाजिक शान का प्रतीक बन गया। गरीब अपनी झोपड़ी के सामने बैठकर आकाश की तरफ देखता है। कहीं कोर्इ चिंगारी उसके आशियाने को खाक न कर दे। इस भेदभाव पर कौन ध्यान देगा। गणेश-लक्ष्मी के पूजन में भी बाजार का हस्तक्षेप है। लगता है जीवन का उíेश्य केवल उपभोक्तावाद है। व्यकित की पहचान का यही आधार है। डिजाइनर कपड़े-सूट हमारी पहचान बनाते हैं। चार पहिया वाहन होना पर्याप्त नहीं। जितनी महंगी कार से चलो, उतने ही महत्वपूर्ण हो जाओगे।
जाहिर है कि उदारीकरण के इस दौर ने सामाजिक भेदभाव को अधिक गहरा किया है। अब यह बुद्धिजीवियों का दायित्व है कि वह सुधार का बीड़ा उठायें। नव सम्राज्यवाद का हमला घर-परिवार तक है। माता-पिता के लिये वर्ष में केवल एक दिन। वह भी केक, जाम और डांस के नाम रहता है। बुद्धिजीवी ही बता सकता है मातृ-पितृ ऋण का महत्व। इससे उऋण होने के लिये एक जीवन कम है। बुद्धिजीवियों को सक्रिय राजनीति में अपनी भूमिका तलाशनी होगी। उसका स्वरूप कुछ भी हो सकता है। अन्यथा राजनीति में अपराधी, माफिया, धन-बाहुबलियां का इसी प्रकार वर्चस्व बढ़ता रहेगा। नि:संदेह आज बुद्धिजीवियों की भूमिका पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है।

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